
सिकंदरपुर (बलिया)। जिस धरती पर विद्यालयों को ज्ञान का मंदिर कहा जाता था, आज वहां इन मंदिरों के दरवाज़े एक-एक कर बंद हो रहे हैं। वहीं दूसरी ओर, समाज को भीतर से खोखला करने वाली मधुशालाएं चट्टी-चौराहों पर फल-फूल रही हैं। यह विरोधाभास न केवल चिंताजनक है, बल्कि सरकार की प्राथमिकताओं पर भी बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने कम छात्रसंख्या वाले प्राथमिक विद्यालयों को एकीकृत (मर्ज) कर बंद करने का निर्णय लिया है। नवानगर व पंदह ब्लॉक में कुल 31 पाठशालाएं इस योजना की जद में हैं। यह निर्णय शिक्षा के अधिकार और बच्चों के समग्र विकास की सोच पर कुठाराघात है। ये वही विद्यालय हैं जहां मिड-डे मील से लेकर बच्चों का टीकाकरण, मतदाता जागरूकता से लेकर सामाजिक चेतना तक की पहलें होती थीं।
बालिकाओं के लिए बढ़ी चिंता
छात्राओं में विशेषकर असुरक्षा की भावना बढ़ी है। ग्रामीण क्षेत्रों में दूर के स्कूलों में जाना बालिकाओं के लिए खतरे से खाली नहीं होता। कई परिवार अपनी बेटियों की पढ़ाई छुड़वाने पर मजबूर हो सकते हैं।
इधर पाठशालाएं बंद, उधर मधुशालाओं की बहार
दूसरी ओर, सरकार की नई आबकारी नीति के तहत शराब की दुकानों की संख्या में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई है। अकेले क्षेत्र में 37 नई दुकानों के लाइसेंस जारी कर दिए गए हैं। इसका असर साफ दिख रहा है—गांव-गांव में विवाद, घरेलू हिंसा, भ्रष्टाचार और अपराध के मामले तेजी से बढ़े हैं।
बिहार में शराबबंदी के चलते यूपी से शराब की तस्करी भी तेज़ी से बढ़ी है। अब शराब न केवल आसानी से उपलब्ध है, बल्कि पहले से सस्ती और व्यापक भी हो गई है।
महिलाएं बोलीं—’आधी कमाई शराब में बह जाती है’
स्थानीय महिलाओं में इस फैसले को लेकर गहरा आक्रोश है। उनका कहना है, “हमारे पति जो कमाते हैं, उसका आधा हिस्सा शराब में उड़ जाता है। इससे बच्चों की पढ़ाई, घर का खर्च और जीवन की शांति सब प्रभावित हो रही है।”
विकास का कैसा मॉडल?
आज जरूरत इस बात की है कि हम यह विचार करें—क्या एक सभ्य समाज में पाठशालाओं को बंद कर मधुशालाएं खोलना उचित है? जब सरकार शिक्षा को पीछे धकेलकर राजस्व के नाम पर शराब को बढ़ावा देगी, तब सामाजिक पतन, हिंसा और असमानता को कैसे रोका जा सकेगा?
समाप्ति में एक सवाल:
क्या ऐसा विकास, जिसमें ज्ञान का दीपक बुझता जाए और नशे की लौ जलती रहे—क्या वह किसी भी दृष्टिकोण से समाज के लिए लाभकारी है?
अब वक्त है चिंतन का, बदलाव का।